एड्स दुनिया की सबसे खतरनाक बीमारी बन चुकी है। भारत के शहर और यहाँ तक कि गाँव भी इस रोग से अछूते नहीं बचे हैं। विश्व में प्रतिदिन 6 हजार एड्स-संक्रमित बढ़ रहे हैं और विश्व स्वास्थ्य संगठन की जानकारी के अनुसार अभी तक लगभग 50 लाख मरीज रोग के पूरी तरह शिकार बन चुके हैं। विशेषज्ञों के अनुसार कुछ वर्षों में भारत भी एड्स के रोगियों की संख्या के मामले में एक प्रमुख देश बन जाएगा।
रोकथाम के उपायों के पश्चात् भी एड्स तेज गति से फैलता ही जा रहा है। यहाँ संक्षेप में एड्स से सम्बन्धित प्रायः सभी आवश्यक जानकारियाँ दी जा रही हैं ताकि लोगों को एड्स से बचने में मदद मिले।
एच आई वी (HIV) का फुल फॉर्म होता है ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिंसी वायरस (Human Immune Deficiency Virus) और एड्स(AIDS) का फुल फॉर्म होता है एक्वायर्ड इम्यून डेफिशिएन्सी सिंड्रोम (Acquired Immune Deficiency Syndrome), वैसे तो एड्स रोग सन् 1980 के पूर्व से ही अफ्रीका एवं अमेरिका में विद्यमान रहा है लेकिन रोग की पूरी दुनिया को जानकारी तब हुई तब सन् 1981 में अमेरिका के एक अस्पताल में निमोनिया से पीड़ित, समलैंगिक यौन आदतों से ग्रस्त पाँच युवा मरीज गम्भीर हालत में भर्ती किए गए।
इलाज के दौरान उन पर कई तरह की महँगी दवाइयों का भी कोई असर नहीं हुआ तो चिकित्सकों ने उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता के लिए जाँच करवाई। जाँचों के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उन युवकों की रोग प्रतिरोधक शक्ति पूरी तौर पर समाप्त हो चुकी है। यह एक आश्चर्यजनक घटना थी।
फिर कई प्रयासों के बावजूद उन मरीजों को बचाया नहीं जा सका। इस घटना के बाद चिकित्सा वैज्ञानिकों ने विस्तृत छानबीन और जानकारियों के आधार पर इस रोग को एड्स अथवा एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएन्सी सिन्ड्रोम (Acquired Immune-Deficiency Syndrome) नाम दिया एवं रोग उत्पन्न करने वाले अति सूक्ष्म विषाणु को एच। आई। वी। (ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिंसी वायरस) नाम दिया।
एचआईवी क्या है? एचआईवी एक वायरस है जो प्रतिरक्षा प्रणाली में कोशिकाओं पर हमला करता है, जो बीमारी के खिलाफ हमारे शरीर की प्राकृतिक रक्षा है। वायरस प्रतिरक्षा प्रणाली में एक प्रकार की सफ़ेद रक्त कोशिका को नष्ट कर देता है जिसे टी-हेल्पर (T-helper) कोशिका कहा जाता है, और इन कोशिकाओं के अंदर खुद की प्रतियां बनाता है। टी-हेल्पर कोशिकाओं को सीडी 4 कोशिकाओं के रूप में भी जाना जाता है।
जैसा कि एचआईवी अधिक सीडी 4 कोशिकाओं को नष्ट कर देता है और खुद की अधिक प्रतियां बनाता है, यह धीरे-धीरे किसी व्यक्ति की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर करता है। इसका मतलब है कि जिस व्यक्ति को एचआईवी है, और वह एंटीरेट्रोवाइरल (antiretroviral) उपचार नहीं ले रहा है, उसे संक्रमण और बीमारियों से लड़ने के लिए कठिन और कठिन लगेगा।
यदि एचआईवी को अनुपचारित छोड़ दिया जाता है, तो प्रतिरक्षा प्रणाली को इतनी गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त होने में 10 या 15 साल तक का समय लग सकता है कि यह अब खुद का बचाव नहीं कर सकता है। हालांकि, एचआईवी की प्रगति की दर उम्र, सामान्य स्वास्थ्य और पृष्ठभूमि के आधार पर भिन्न होती है।
एड्स क्या है? एड्स एचआईवी के कारण होने वाले लक्षणों (या वायरस के विपरीत सिंड्रोम) का एक सेट है। एक व्यक्ति को एड्स तब होता है जब संक्रमण से लड़ने के लिए उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली बहुत कमजोर होती है, और वे कुछ निश्चित लक्षणों और बीमारियों को विकसित करते हैं। यह एचआईवी का अंतिम चरण है, जब संक्रमण बहुत उन्नत होता है, और यदि अनुपचारित छोड़ दिया जाता है तो मृत्यु हो जाएगी।
कैसे नष्ट होती है रोग प्रतिरोधक क्षमता आइये जानते है, शरीर की बाहरी रोगाणुओं से लड़ने की शक्ति को ही रोग प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं। शरीर में यह कार्य रक्त में उपस्थित कुछ विशेष तरह की श्वेत रक्त कोशिकाएँ सम्पादित करती हैं जिनमें टी-4 और टी-8 कोशिकाएँ शामिल हैं।
टी-4 कोशिकाएँ रक्त में उपस्थित बी-लिम्फोसाइट नामक श्वेत रक्त कणों को रोगाणुओं के प्रवेश की सूचना देती हैं। तब बी-लिम्फोसाइट (B lymphocytes) रोगाणुओं के विष (एंटीजन) प्रभाव को निष्क्रिय करने के लिए एक विशेष तरह की प्रोटीन जिसे एंटीबाडीज (प्रतिपिंड) कहते हैं का निर्माण करती है, जबकि टी-8 कोशिकाएँ एंटीबाडीज बनने की प्रक्रिया पर नियन्त्रण रखने का कार्य करती हैं।
एंटीबाडीज, रोगाणुओं द्वारा उत्पन्न विष को निष्क्रिय बना देती हैं। इस कारण रोग नहीं हो पाते। जबकि कुछ कोशिकाएँ रोगाणुओं का भक्षण भी करती हैं, इन्हें भक्षण कोशिकाएँ अथवा नेचुरल किलर्स कोशिकाएँ कहते हैं।
एड्स रोग का विषाणु रक्त में प्रवेश करके सीधे टी-4 नामक कोशिकाओं पर आक्रमण करता है। विषाणु कोशिका की प्रोटीन से बनी बाहरी सतह को भेदकर अन्दर प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ विभाजन द्वारा एक से अनेक विषाणु, रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज नामक एन्जाइम की मदद से उत्पन्न होते हैं। फिर ये विषाणु कोशिका का आवरण तोड़कर बाहर आ जाते हैं और इस तरह कोशिका मृत हो जाती है।
नए तैयार विषाणु अन्य टी-4 कोशिकाओं को पुनः अपना शिकार बनाकर उन्हें भी नष्ट करते रहते हैं। फिर शरीर में टी-4 कोशिकाओं की संख्या में कमी होने के कारण रोग प्रतिरोधक प्रणाली ठीक तरह कार्य नहीं कर पाती और यह क्षमता क्रमशः नष्ट हो जाती है।
इसके कारण शरीर में कई तरह के रोगों के जीवाणु और विषाणु और कवक आसानी से घर जमा लेते हैं। इन्हें अवसरवादी रोग कहते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख रोग है। न्यूमोनिया, टी.बी., हर्पीस सिम्प्लेक्स इत्यादि।
इस विषाणु से संक्रमित व्यक्ति में एड्स के चरण प्रमुख रूप से चार अवस्थाओं मे होते हैं -
चरण1
रोग की पहली अवस्था में रोगी केवल एड्स विषाणु का वाहक कैरियर बना रहता है यहाँ तक कि परीक्षणों में भी रोग की पुष्टि नहीं हो पाती। यह अवस्था 4 से 21 सप्ताह तक रह सकती है, अथवा कई मामलों में और भी लम्बे समय तक रहती है एवं अधिकतर रोगियों को कोई तकलीफ उत्पन्न नहीं होती।
चरण2
रोग की दूसरी अवस्था में संक्रमण के कारण रक्त में एंटीबाड़ी बन जाती हैं जिससे खून की जाँच के परिणाम धनात्मक मिलते हैं। लेकिन एड्स रोग के लक्षण फिर भी विकसित नहीं होते। यह अवस्था 6 महीनों से लेकर 10 से 12 वर्षों तक रह सकती है और इस अवस्था में मरीज अन्य स्वस्थ्य व्यक्तियों को भी रोग का शिकार बना सकता है।
चरण3
रोग की तीसरी अवस्था में रोग के प्रारम्भिक लक्षण जैसे शरीर की लसिका ग्रन्थियों में स्थाई रूप से सूजन आना, बुखार रहना, दस्त लगना, वजन कम होना इत्यादि शिकायतें हो जाती हैं। इसे एड्स रिलेटेड काम्पलेक्स भी कहते हैं।
चरण 4
यह रोग की अन्तिम अवस्था होती है। इसमें पूर्व के लक्षणों के अलावा अनेक अवसरवादी रोग जैसे टी.बी., हरपीज-सिम्पलेक्स, त्वचा कैर र इत्यादि भी हो जाते हैं और मरीज कृषकाय एवं कमजोर होकर मृत्यु तक पहुँच जाता है।
यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि एड्स रोग और एच। आई। वी। संक्रमण में अन्तर होता है। यह आवश्यक नहीं कि एड्स रोग के विषाणु से संक्रमित व्यक्ति में एड्स के लक्षण भी मिलें, वह बगैर कोई तकलीफ के कई वर्षों तक स्वस्थ रह सकता है। लेकिन एड्स-संक्रमित व्यक्ति में पूर्ण रूप से एड्स की बीमारी कभी न कभी अवश्य होती है। कुछ मामलों में 12 वर्ष पश्चात् यह रोग उभरता पाया गया।
(अ) प्रमुख लक्षण :- यह तीन प्रकार के होते हैं :
(1) लगातार कई दिनों तक बिना कारण के बुखार बना रहना और किसी दवा से ठीक न होना।
(2) लगातार वजन कम होते जाना एवं तीन महीनों में ही रोगी का वजन 20% कम होना।
(3) लगातार एक महीने से ऊपर पतले दस्त लगना और दवाओं से ठीक न होना।
(ब) साधारण लक्षण :- यह छः प्रकार के होते हैं :
(1) एक महीने से अधिक समय तक खाँसी आना।
(2) शरीर की सभी लसिका ग्रन्थियों में सूजन आना।
(3) मुँह में बालों युक्त सफेद चकत्ते या धब्बे पड़ना।
(4) पूरे बदन में खुजली एवं जलन होना।
(5) बार-बार हज जूस्टर नायक बीमारी का होना।
(6) हर्पीस (Herpes) सिम्पलेक्स नामक बीमारी का बढ़ते जाना।
किसी मरीज में दो प्रमुख लक्षण एवं एक साधारण लक्षण होना यह प्रदर्शित करता है कि मरीज की एड्स के लिए भी जाँच करवा लेनी चाहिए, क्योंकि ऐसा मरीज रोग से संक्रमित हो सकता है।
लेकिन केवल एड्स के लक्षण के आधार पर किसी मरीज को एड्स रोगी समझने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए। एड्स संक्रमण की पुष्टि एलाइजा जाँच के अलावा वेस्टर्न ब्लाट जाँच द्वारा भी होनी आवश्यक है।
यहाँ यह भी समझ लेना आवश्यक है कि, कई बार एड्स संक्रमण के बावजूद भी एड्स परीक्षा करवाने पर परिणाम धनात्मक नहीं मिलता। ऐसे मामलों में कुछ सप्ताह पश्चात् पुनः जाँच करवानी चाहिए। लेकिन यह भी दृष्टव्य है कि परीक्षण 100% यह सिद्ध नहीं करता कि किसी रोगी को एड्स का संक्रमण नहीं है।
एड्स एक संक्रामक रोग तो है, लेकिन छूत की बीमारी नहीं है अर्थात् यह मरीज के साथ खाना खाने, उसके खाँसने इत्यादि से नहीं होता। यद्यपि एड्स विषाणु, रोगी के रक्त के साथ-साथ उसकी लार, मल-मूत्र एवं वीर्य में भी होते हैं, लेकिन रोगी की परिचर्या करने से रोग नहीं लगता। रोग फैलने के लिए एच। आई। वी। युक्त रक्त या वीर्य का स्वस्थ व्यक्ति के खून से सीधा सम्पर्क आवश्यक है। एड्स फैलने के कारण क्या है यह निम्न पाँच माध्यमों द्वारा बताया गया है :
(1)प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक यौन संसर्गों द्वारा एड्स फैलने का कारण है
भारत में इस माध्यम से रोग सबसे अधिक फैला है। हमारे यहाँ यौन सम्पर्को दारा रोग फैलने का प्रतिशत 44 है। वेश्यावृत्ति इसका मुख्य कारण है। एक से अधिक साथियों से असीमित यौन सम्पर्क रखने वालों एवं समलिंगी यौन आदतों वाले रोगियों को एडस होने की ज्यादा सम्भावनाएँ होती हैं। विभिन्न तरह के यौन रोगी भी एड्स शेरा के शिकार आसानी से बनते देखे गए हैं। इनके यौनांगों पर घाव होने की वजह से एड्स विषाणुओं को रक्त में प्रवेश करने की सुविधा हो जाती है। अतः ऐसे गुप्त रोगों के रोगी अधिक खतरे वाले समूह या हाई रिस्क ग्रुप में आते हैं।
(2)इन्जेक्शनों द्वारा नशीली दवाइयाँ लेने से एड्स फैलता है
भारत में 13.5% रोगी नशीली दवाइयों के कारण संक्रमित हुए हैं। विशेषकर मणिपुर में 18 से 30 वर्ष के हजारों युवाओं में एड्स ऐसे माध्यमों से खूब फैल रहा है। ये नशेबाज सुइयों को बगैर उबाले सामूहिक रूप से खून की नसों में सीधे प्रवेश कराते हैं। इस कारण यदि समूह में एक भी नशेबाज को एड्स संक्रमण हुआ तो वह अन्य साथियों में भी हो जाता है।
(3) दूषित रक्त प्रदाय एवं रक्त उत्पादों द्वारा एड्स फैलने का सबसे बड़ा कारण है
देश में इस तरह से एड्स फैलने का प्रतिशत 3 है। अभी भी बहुत से अवैध रक्त बैंकों द्वारा दूषित रक्त प्रदाय किया जा रहा है, इसलिए इस माध्यम से भी रोग फैलने का खतरा बना हुआ है। देश में लगभग पन्द्रह हजार से ऊपर रक्तदाता एच। आई। वी। से संक्रमित पाए गए हैं। इस तरह व्यवसायिक रक्तदाताओं से भी रोग फैलने का खतरा बना हुआ है। यदि किसी रोगी को एड्स विषाणुयुक्त रक्त चढ़ा दिया जाए तो उसे संक्रमण की सम्भावना निश्चित रहती है। इसके अलावा, कुछ विशेष रोगों, जैसे हीमोफीलिया इत्यादि में रोगी को रक्त से निकाले गए रक्त उत्पाद दवा के रूप में चढ़ाए जाते हैं। अब यदि ये उत्पाद एच। आई। वी। युक्त हुए तो उस रोगी को भी रोग हो सकता है। हमारे देश में हीमोफीलिया एवं थेलेसेमिया (इस रोग में मरीज को बार-बार रक्त से निकाली हुई रक्त कोशिकाएँ देने की आवश्यकता होती है) रोग से ग्रस्त छोटे-छोटे बच्चों में एड्स संक्रमण, इन्हीं कारणों से हुआ है।
(4) एड्स-ग्रस्त माताओं द्वारा बच्चों में फैलने का कारण
इस माध्यम द्वारा रोग होने का प्रतिशत भारत में अत्यन्त कम (0.45%) है, लेकिन भविष्य में जैसे-जैसे एड्सग्रस्त महिलाओं की संख्या में वृद्धि होगी, नवजात शिशुओं में भी एच। आई। वी। के जाँच के परिणामों की धनात्मकता बढ़ती जाएगी। यदि माँ एड्स विषाणुओं से संक्रमित होती है तो उसके नवजात शिशु में संक्रमण की सम्भावना लगभग 40% होती है।
(5) अन्य साधनों से एड्स फैलने के कारण
उपरोक्त माध्यमों के अलावा अन्य साधनों जैसे डायलॉसिस, अस्पतालों एवं प्रसूतिका गृहों में दूषित सुईयों के इस्तेमाल से भी रोग बढ़ रहा है। भारत में एड्स विषाणुग्रस्त 180 रोगी केवल दूषित डायलासिस के कारण संक्रमण के शिकार बन चुके हैं। इसके अलावा उचित जीवाणु रहित प्रक्रियाओं के अभाव में नाइयों के उस्तरे, गोदना, मशीनों से भी रोग के प्रसार की सम्भावना व्यक्त की गई है। कृत्रिम गर्भाधान के लिए वीर्य देने वाले व्यक्ति में यदि एड्स संक्रमण है तो उत्पन्न होने वाले व को यह संक्रमण हो सकता है।
वैसे तो एड्स के विभिन्न परीक्षण कुछ जगह पर ही उपलब्ध हैं, लेकिन आजकल दो तरह की जाँचें भारत के प्रायः सभी बड़े शहरों में की जाती हैं :
1। एलाइजा पद्धति एवं किट द्वारा जाँच :- एड्स संक्रमण की सम्भावना का पता करने के लिए सर्वप्रथम यही परीक्षण किया जाता है। आजकल इस तरह की जाँच के छोटे-छोटे किट ही उपलब्ध हैं।
बड़े शहरों में निजी रक्त परीक्षण केन्द्र भी किट द्वारा जाँच 100/- रुपया से लेकर 250/- रुपया तक में करते हैं। एलाइजा जाँच की सुविधा अब भारत में 80 निगरानी एवं जाँच केन्द्रों में उपलब्ध है।
प्रान्त की सभी राजधानियों और बड़े शहरों में यह जाँच की जाती है लेकिन इस जाँच की विश्वसनीयता 100 प्रतिशत नहीं है। इसलिए रोग की पुष्टि के लिए एक महँगी जाँच वेस्टर्न ब्लॉट की जाती है।
2। वेस्टर्न ब्लाट परीक्षण :- यह परीक्षण कुछ बड़े शहरों में ही उपलब्ध है। एलाइजा जाँच के परिणाम धनात्मक आने पर उन्हें वेस्टर्न ब्लॉट द्वारा जाँच के लिए भेजा जाता है। इस जॉच में एक परीक्षण की लागत 500/ रुपये से ऊपर आती है एवं उपकरण भी अत्यन्त महँगा होता है। अभी यह जाँच बम्बई, दिल्ली, पूना, मद्रास, कलकत्ता, बेंगलूर और इम्फाल में ही उपलब्ध है।
सही बात तो यह है कि एड्स का इलाज का कोई भी सफल अथवा प्रभावी तरीका नहीं खोजा जा सका है। कुछ महँगी दवाइयाँ अवश्य हैं जो रोगी के जीवन काल को कुछ महीनों से लेकर एक दो वर्ष तक बढ़ा देती हैं लेकिन रोग को पूरी तौर पर ठीक नहीं कर सकतीं। सबसे अच्छा एड्स का इलाज है एड्स के प्रति जागरूक रहना और उसके प्रति सतर्कता बरतना।
समय-समय पर कई आयुर्वेदिक एवं होम्योपेथिक चिकित्सक भी रोग की दवा खोजने का दावा करते रहते हैं, लेकिन उनके दावे प्रमाणित नहीं हो सके हैं, इसलिए उनके द्वारा सफल इलाज के दावों के बारे में विश्वासपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता।
रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए कुछ अन्य तरह की चिकित्साओं का भी प्रयोग किया जा रहा है, जैसे स्वस्थ व्यक्ति की अस्थि मज्जा का प्रतिस्थापन एवं इंटरफेरान चिकित्सा। लेकिन यह सब एड्स के रोगी को थोडा आराम देते हैं। अभी तक किसी पूर्ण प्रभावी चिकित्सा का विकास इस खतरनाक बीमारी के लिए नहीं हो पाया है।
एड्स से बचने के लिए एड्स का न तो कोई प्रभावी इलाज है और न ही प्रतिरक्षा के लिए टीका उपलब्ध है, इसलिए इस भयंकर जानलेवा बीमारी से सुरक्षित रहने का एकमात्र उपाय रोग से बचाव ही है। इसलिए हमें प्रमुख रूप से एड्स से बचने के उपाए पर ही ध्यान केन्द्रित करना होगा।
वैसे बचाव के लिए कुछ सावधानियों का प्रयोग करके एड्स से सुरक्षित रहा जा सकता है। एड्स से बचने के उपाय हैं :
1.अप्राकृतिक अथवा अमर्यादित (इसमें वेश्यावृत्ति भी शामिल है) और नए व्यक्तियों के साथ यौन सम्बन्ध न बनाएँ। यदि आवश्यक ही हो तो निरोध (कन्डोम) का इस्तेमाल अवश्य करें। वैसे इस मामले में एक ही जीवन साथी वाली भारतीय संस्कृति पर अमल करना उचित है। समलिंगी यौन आदतों वाले व्यक्ति ये आदतें त्याग दें, तो अच्छा है वरना वे एड्स संक्रमण के लिए तैयार रहें।
2. इन्जेक्शनों द्वारा नशा लेने वाले व्यक्ति नशे छोड़ दें अथवा फेंकने योग्य सुईयों एवं सिरिंजों का इस्तेमाल करें, और सम्भव हो तो इन्जेक्शनों की बजाय खाने वाले नशों को लेकर धीरे-धीरे इनकी मात्रा भी कम करके इन्हें भी छोड़ दें, अथवा नशामुक्ति केन्द्रों का सहारा लें।
3। चिकित्सा कर्म से जुड़े कर्मचारी एवं चिकित्सक गण उचित जीवाणु रहित प्रक्रियाओं, जैसे सुइयाँ, सीरिंजों को उबालने और औजारों को दूषण रहित बनाने पर विशेष ध्यान दें एवं दुर्घटनावश होने वाले संक्रमण से भी स्वयं को बचाएँ। जहाँ तक सम्भव हो फेंकने योग्य सुइयों एवं सीरिंजों का ही इस्तेमाल करें। आवश्यकतानुसार दुहरे दास्ताने भी पहनें।
4. सैलूनों में नाई भी उस्तरे की बाजए हर बार नए ब्लेड का इस्तेमाल करें एवं एन्टीसेप्टिक लोशन का भी प्रयोग करे ।
5. जरूरत पड़ने पर ऐसा रक्त अथवा रक्त उत्पाद लें जिसके साथ एच। आई। वी। मुक्ति का प्रमाण पत्र हो एवं रक्ताधान (Blood Transfusion) के समय निम्नलिखित सावधानियाँ भी रखनी चाहिए :
6. एड्स-ग्रस्त महिलाएँ भी गर्भ धारण न करें क्योंकि ऐसी महिलाओं द्वारा उत्पन्न 40% नवजात शिशुओं के एड्स विषाणु से ग्रस्त होने की सम्भावना रहती है। इसके अलावा कृत्रिम गर्भाधान के लिए वीर्य लेते वक्त वीर्यदाता की एड्स के लिए जाँच करवाना भी अत्यन्त आवश्यक है। नवजात शिशु एड्स विषाणु का संक्रमण लिए पैदा हों, इससे बेहतर तो यह है कि उनके जन्म पर ही रोक लगाई जाए।
इस तरह उपर्युक्त सावधानियां रखकर एड्स रोग से जीवनपर्यन्त बचा जा सकता है।
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