अपने शरीर के ‘फिगर' की चिंता करने वाली आधुनिक मांए अपने कर्तव्य तथा दायित्व से विमुख होकर, बच्चे को उसके जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित रखकर पाप की भागी बन रही हैं। वह प्रकृति के रास्ते में भी रोड़ा बनती जा रही हैं। प्रकृति के नियमों का उल्लंघन कर रही हैं।
शिशु को स्तन-पान न कराकर वह अपने ‘फिगर' की रक्षा करने का केवल उपक्रम कर रही हैं। यदि खुद को छोटा-सा रोग लग जाए, तो ‘फिगर' से पहले जान बचाने की चिंता करने लगती हैं। लेकिन उसका दूध न पाकर बच्चा रोगी हो जाएगा इसकी उसे बिलकुल चिंता नहीं है। माता को चाहिए कि वह प्रकृति के कार्यों को समझे।
अतः स्पष्ट है कि मां के शरीर से बना एक और शरीर अर्थात् नन्हा बच्चा, सही खुराक पा सके इसकी फिक्र कुदरत को है, तभी तो उसने शिशु के जन्म से पूर्व ही दूध की व्यवस्था की है। मगर मां आंखें मूंद कर अपने शरीर में लगी दूध बनाने की फैक्ट्री के शटर-डाउन करने पर उतारू रहती है। वह नहीं चाहती कि शिशु को दूध पिलाकर वह अपने स्तनों को लटकने दे। उनमें कसाव की कमी आए या उनका आकार व स्वरूप बदले।
मां प्रकृति के इस चमत्कार को शायद भूल जाती है कि जिस मार्ग से 7-8 पौंड भार, बड़े आकार वाले बच्चे ने जन्म लिया है, वह सामान्यतः बच्चे को रास्ता देने योग्य नहीं है। यह प्रकृति का चमत्कार ही है कि उसने बच्चे के लिए मार्ग प्रशस्त किया और कुछ समय बाद उस मार्ग को पहले जैसा सामान्य बना दिया।
उसी प्रकृति ने मां के स्तनों में बच्चे के लिए दूध उतारा है। दूध है तो ये बड़े हैं, बच्चा दूध खींचेगा, पिएगा तो ये लटकेंगे भी। मगर प्रकृति को जहां बच्चे की चिंता है, वहीं उसकी मां की भी। धीरे-धीरे बच्चा दुध पीना कम करता जाएगा तथा मां के दूध निर्मित होने में भी कमी आने लगेगी। उपयोग समाप्त होने पर वही स्तन, जिनकी चिंता में मां बच्चे को दूध नहीं पिलाना चाहती, दोबारा अपने वास्तविक रूप में लौटने लग जाएंगे।
अतः मां को चाहिए कि बच्चे को दूध पीने के उसके जन्मजात अधिकार से वंचित न करे। प्रकृति के रास्ते में रोड़ा न बने। अपने दायित्व को पूरी ईमानदारी के साथ निभाए। बाद में थोड़ा व्यायाम करके योगासनों का सहारा लेकर, अपने खान-पान पर ध्यान देकर, अपने शरीर को सुदृढ़ कर सकती है। बेचारे नन्हें शिशु को, जो उसके ही खून से निर्मित होकर उसी पर निर्भर है, उसे उसके हक से महरूम न करे। बच्चे की चिंता पहले, अपनी बाद में करे, तभी तो वह मां है।
पुरानी माताएं बिस्तर कपड़े के अभाव में, बच्चे को गीले से उठाकर अपने सीने पर सुला लेती थीं और स्वयं जैसे-तैसे गीले पर सोकर रात काट दिया करती थीं। आज की मां जिसे स्तनों की चिंता है, वह अपने शरीर के बारे में पहले सोचेगी, बच्चे की बाद में। इसीलिए तो जब मां की ओर से ममत्व नहीं उमड़ता, तो बच्चे की ओर से भी मां के प्रति भक्ति में कमी आती जा रही है, जिसका परिवार व्यवस्था का गंभीर प्रभाव पड़ रहा है।
मां के स्तन सदा सूखे रहते हैं। इनमें से कभी दूध नहीं उपजा। बच्चा पेट में पल रहा है, मगर स्तन तब भी खाली। जैसे ही बच्चे का जन्म हुआ नहीं कि मां के स्तन का द्वार खुल गया। अंदर दूध बना और बाहर निकलने को उतावला हो उठा। न निकालें तो भी कपड़े गीले करने को तैयार। बच्चे की उत्पत्ति के साथ स्तनों में दूध निर्मित हो जाना प्रकृति का कौशल ही तो है।
इसे चमत्कार ही तो मानेंगे। मां ने, पिता ने या किसी डॉक्टर ने तो कोई ऐसी कोशिश नहीं की कि जच्चा की छाती के अंदर छोटा-सा उपकरण फिट किया जाए, जो स्तनों से दूध भेजने लगे। यह प्रकृति ही तो है, जिसे नवजात शिशु की चिंता है।
अतः मां को चाहिए कि प्रकृति के कदम-से-कदम मिलाकर चले, तभी वह मां के प्राकृतिक दायित्व को पूर्ण करेगी।
और पढ़े:- शिशु के लिए उपयुक्त भोजन कहा से प्राप्त होता है|
पूछें गए सवाल