जब मूत्र शिश्न के मूल में या बीच में या अगले भाग में रुक कर जलन एवं दर्द के साथ बूंद-बूंद करके निकलता है तब उस अवस्था को मूत्र रोग कहते हैं। इस रोग को साधारणतया तीन भागों में बांटा गया है।
1। मूत्र रोग के कारण - इसमें पथरी का होना, फोड़ा या गांठ का होना, मूत्र रोग की झिल्ली की सूजन, मूत्र में अम्लीयता का अधिक होना तथा चूरू कृमी का होना।
2। मूत्र मार्गगत कारण - इसमें मूत्र मार्ग की झिल्ली की सूजन, मूत्र मार्ग के बीच संकोच आदि।
3। अन्य कारण - गुर्दो की सूजन, मधुमेह के कारण, मूच्र्छा, अधिक तेज बुखार, अधिक उल्टी होना, दस्त का लगना, जल के प्रयोग की कमी, लू का लगना, पौरुष ग्रंथि की सूजन का होना, बवासीर, गर्भाशय का अपने स्थान से हट जाना, आदि का होना।
(1) एलादि चूर्ण 1-3 ग्राम मधु के साथ दिन में तीन बार प्रयोग करें।
(2) शुद्ध शिलाजतु 500 मि.ग्राम शहद के साथ दिन में दो बार प्रयोग करें।
(3) तारकेश्वर रस 60-120 मि.ग्राम शहद के साथ दिन में दो बार दें।
(4) चंद्रप्रभावटी 1-2 वटी दूध के साथ तीन बार प्रयोग करें।
(5) प्रवाल भस्म 120 मि.ग्राम तंडुलादक के साथ दिन में दो बार दें।
(6) श्वेतपर्पटी 1 ग्राम दिन में दो बार जल के साथ प्रयोग करें।
(7) यवक्षार 500 मि.ग्राम दिन में दो बार प्रयोग करें।
(8) मूत्र कुच्छांतक रस 240 मि.ग्राम श्वेतपर्पटी दो ग्राम मिलाकर अमृतादि क्वाथ से दो बार दें।
(9) त्रिनेत्र रस 240 मि.ग्राम, चंद्रकला रस 240 मि.ग्राम, श्वेतपर्पटी दो मि.ग्राम मिलाकर तृण पंचमूल क्वाथ से दो बार दें।
(10) वरूणाद्यलौह 500 मि.ग्राम छोटी एला चूर्ण 500 मि.ग्राम श्वेतपर्पटी 2 ग्राम गोखरू क्वाथ से दो बार दें।
(11) वैक्रांत गर्भ रस 240 मि.ग्राम वारितरलौह भस्म 120 मि.ग्राम मधु के साथ तक्र से दें।
(12) शुद्ध शिलाजीत 500 मि.ग्राम मधु में मिलाकर छोटी एला चूर्ण मिश्री मिलाकर गोखरू के साथ दें।
(13) त्रिकंटकाद्य घृत 10 ग्राम गुड मिश्रित उष्ण दूध से दें।
पूछें गए सवाल