रक्त या खून एक शारीरिक तरल (द्रव) है जो रक्त वाहिनियों के अन्दर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होने वाला यह गाढ़ा, कुछ चिपचिपा, लाल रंग का द्रव्य, एक जीवित ऊतक है। यह प्लाज़मा और रक्त कणों से मिल कर बनता है।
रक्त की उपयोगिता को ठीक-ठीक समझने के लिए उसके भिन्न-भिन्न तत्वों के सम्बन्ध में कुछ जानना चाहिए। धमनियों में बहने वाला शुद्ध रक्त आंखों से देखने पर-केवल लाल रंग का एक तरल पदार्थ जान पड़ता है। लेकिन अणुवीक्षण यन्त्र के परीक्षण से उसमें अनेक पदार्थ मिलते हैं
1। रक्त-रस (प्लाज्म)।
2।
रक्ताणु।
3। श्वेताणु।
रक्त-रस:- यह एक हल्का पीले रंग का तरल पदार्थ है। जिसमें 90 % जल तथा 10% अन्य पदार्थ-प्रोटीन, चर्बी, ग्रन्थियों के अंत:स्राव, अलब्यूमेन, फाइब्रिन नामक तत्व, चूना, मैगनीशिया, सोडा आदि अनेक प्रकार के लवण, आक्सीजन, कार्बनडायआक्साइड, नाइट्रोजन, यूरिक एसिड आदि, अर्थात् शरीर के सभी पोषक तत्व और त्याज्य पदार्थ रहते हैं।
श्वेत और लाल कण इसी में तैरते हैं। और इसी के सहारे हम जीवित रहते हैं। इसी के द्वारा शरीर के भिन्न-भिन्न प्रकार के कोषाणु का निर्माण तथा पोषण होता है और शरीर की रसायनशाला में प्रस्तुत नाना प्रकार के रस विविध भागों में पहुंचते हैं।
रक्ताणु:- अणुवीक्षण-यन्त्र से देखने पर रक्त में बहुत से गोल, लम्बे तथा बीच से चिपके कण दिखाई पड़ते हैं। अलग-अलग उनका रंग पीला होता है, पर एक साथ पुंजीभूत होने के कारण वे लाल प्रतीत होते हैं। सामान्य व्यक्ति के एक बूंद रक्त में लगभग 50 लाख ऐसे कण एक-दूसरे से सटे रहते हैं। इसके भीतर हीमोग्लोबिन नामक एक लाल रंग का पदार्थ होता है, उसी के कारण ये लाल लगते हैं। हीमोग्लोबिन रक्ताणु का सबसे उपयोगी पदार्थ है। उसमें वायु के आक्सीजन को आकर्षित करने का विशेष गुण है।
लाल कण उसी की सहायता से आक्सीजन लेकर रक्त-रस में मिलाते हैं। रक्त में इन कणों की अथवा हीमोग्लोबिन की कमी होने पर पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन ग्रहण करना कठिन हो जाता है। लाल कण रक्त से कार्बन-डाय-आक्साइड और अनावश्यक जल को भी अलग करते हैं। तथा उसमें अम्लता की वृद्धि नहीं होने देते हैं।
श्वेताणु:- रक्त के सफेद कण लाल कणों से बड़े, भिन्न-भिन्न आकार के कहीं लम्बे, कहीं गोल और पांच प्रकार के होते हैं। इनकी संख्या लाल कणों से कम होती है। एक बूंद रक्त में लगभग 8-10 हजार श्वेताणु रहते हैं, इसके अधिक होने से शरीर पीला और कमजोर हो जाता है।श्वेताणुओं का मुख्य कार्य शरीर को बीमारी के आक्रमण से बचाना है। रोग की अवस्था में उनकी संख्या बढ़ जाती है और वे रोगाणुओं को नष्ट करने लगते हैं। किसी अंग में चोट लगने पर वे घाव को जल्दी-से-जल्दी घेरकर भर देते हैं।
इससे बाहर के कीटाणु भीतर नहीं जा पाते। मवाद या पपड़ी के रूप में वही जूझे हुए सैनिक के रूप में दिखाई पड़ते हैं। जब तक कटे-फटे अंग की मरम्मत नहीं हो जाती जब तक श्वेताणुओं का घेरा पड़ा ही रहता है। इनके निर्बल एवं निर्जीव होने पर ही बाहरी कीटाणु शरीर पर अधिकार करने में सफल होते हैं।
अत: शरीर को पुष्ट रखने के लिए रक्त बढ़ाने और उसे साफ रखने वाले खाद्य-पदार्थ, फल, हरी सब्जियां, दूध, अंडे आदि का भरपूर उपयोग करना चाहिए।
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