बालक का जन्म तो गर्भ धारण के दिन ही हो जाता है किंतु उसका गर्भ के अंदर का जीवन माता के ऊपर निर्भर होता है। उस समय माता के रस रक्तादि से वह अपने शरीर रूपी घर का निर्माण करता रहता है। किंतु धरती पर कदम रखने के क्षण से ही उसका संघर्षमय स्वतंत्र जीवन प्रारंभ हो जाता है। साधारणतया जीवन का पहला वर्ष, विशेषतः पहला महीना, उसमें भी पहला दिन अत्यंत महत्व का होता है। अधिक संख्या बाल मृत्यु इसी समय होती है।
प्रसव के दौरान चोट का लगना, श्वास का रुकना, ज्यादा रक्त का बहना या रक्त की बीमारियां, समय से पहले प्रसव का होना आदि प्रथम दिन या पहले सप्ताह में ही घातक बन जाती हैं।
जन्म लेने के समय आघातों में सबसे घातक सिर की चोट माना जाता है। किसी प्रकार बालक के बच जाने पर उसका दिमाग सदा के लिए विकारयुक्त हो जाता है। श्वास के रुकने का अन्य कारण कफ, रक्त या गर्भादक आदि से श्वास मार्ग का रुकना है। अपरानाल के दबाव या तीव्र गर्भाशय संकाच से नाभिनाल गिरने से भी श्वास का रुकना संभव है। सिर में तेज आघात के कारण शिशु मरकर जन्म लेता है। तेज और कम में क्रमश: श्वेत और नील श्वासावरोध होता है। श्वेत श्वासावरोध में शिशु शांत, शीतल नाडी हलकी तथा गर्भनाल व त्वचा गर्भ के मल से लिप्त रहती है। ऐसा शिशु प्रायः मर जाता है। यदि किन्हीं कारणों से बच जाए तो दौरे आने लगते हैं। नील श्वासावरोध में नाड़ी ठीक रहती हैं। मस्तिष्क में विकार होता है। सांस देर से प्रारंभ होता है। प्रयत्नपूर्वक पालन से ये शिशु बच जाते हैं।
प्रसवकालीन सावधानी से प्रायः श्वास में रुकावट नहीं होती। यदि हो तो तत्काल ही बच्चे को पैर पकडकर उलटा उठाए। इससे फेफड़ों में भरा द्रव निकल जाता है। मुख पर शीतल जल के छींटे मारें। कृत्रिम श्वसन या आक्सीजन दें। मुंह पर मुंह लगाकर सावधानी से फेंके। 1-2 मि.ग्राम मकरध्वज दो बूंद शहद में मिलाकर जबान के नीचे रखने से सांस क्रिया ठीक चलने लगती है।
नवजातों में रोग निवारक क्षमता के अपूर्ण रहने के कारण रोग कुछ ही घंटों में घातक हो सकता है। नवजात शिशु रोग है जैसे-
भूख न लगना, उल्टी, दस्त जलीयांश की कमी, बेचैनी आदि की उचित चिकित्सा न होने पर अंत में मृत्यु हो जाती है।
नवजातों में इस रोग में रोग का मुख्य लक्षण गर्दन की जकड़ाहट नहीं मिलती। अंत में जब मिलती है तब मृत्यु हो जाती है। अधिकतर ई। कोलाई इसका कारण होता है। यदि शिशु बच गया तो प्रायः दिमाग की खराबी आजीवन बनी रहती है।
यह रोग माता को गोनोकोकाई को उपसर्ग होने पर शिशु को होता है। पलकों में सूजन, चिपचिपापन, गाढ़ा स्राव आदि लक्षण मिलते है।
नाक के संक्रमण से शिशुओं को जुकाम होकर नाक बंद हो जाती है।
इसमें मुख का पकना तथा गले का पकना और सूजन हो जाती है। इसमें मुख, जीभ तथा तालू पर दूध व मलाई जैसे छालों से ढक जाती है। इसका फैलाव अन्न नलिका तर्क हो जाता है।
इसमें जिगर अपने कच्चेपन के कारण खून के हिमोग्लोबिन के टूटने से उत्पन्न बिलीरुबीन के भार को संभालने में असमर्थ रहता है। शिशु में सुस्ती व भूख का न लगना ये दो लक्षण अधिक मिलते हैं। यह छ: प्रकार का होता है।
न्यूमोनिया गर्भ में भी तथा जन्म के बाद दो-तीन दिनों के भीतर भी हो सकता है। जन्म के बाद पहले सांस के साथ पूरे फेफड़े में वायु नहीं जा पाती। अतः बिना फैले फेफड़े के भाग में बिमारी होने का खतरा अधिक होता है। यदि विकार हो जाए तो फेफड़ा पूर्णतया विकास नहीं कर पाता है।
स्टेफलोकोकाई के कारण इस रोग में नाभिपाक, नेत्रों की लालिमा, नाखून का पक जाना, तथा माता का स्तन का पाक भी हो जाता है।
इसमें ई। कोलाई या स्टेफलोकोकाई के कारण होता हैं जिसमें शिशुओं में दस्त बहुत पाए जाते हैं।
कई रोगों में शिशुओं के पेट में रक्त बहता रहता है जिससे खून की उल्टी एवं खून के दस्त होते है। कई बार त्वचा व नाभिनाल से भी रक्त बहता रहता है।
कई बार नाभिनाल के कटने आदि कारणों से शिशु का रक्त नाभिनाल द्वारा माता के रक्त में चला जाता है जिससे उसको प्रथम सप्ताह में ही पीलिया हो जाता है।
मधुमेह रोगी माता-पिता के बच्चों में माता की रक्तगत शर्करा की अधिकता बच्चों में भी शर्करा की अधिकता पैदा कर देती है जिससे अग्नाश्य उत्तेजित होकर इंसुलिन अधिक बनाने लगता है। इससे पोषण में ग्लूकोज अधिक होने से शिशु मोटा हो जाता है। ऐसे शिशु समय से पहले ही पैदा हो जाते हैं। उनमें श्वास के रोग प्रायः मिलते हैं।
उपसर्ग में मात्रानुसार कस्तूरीभैरव रस योग्य औषधि है। नाक के संक्रमण में 1/2 प्रतिशत लवण विलयन में बना घोल 1-2 बूंद की मात्रा में डालें। जन्म के बाद फेफड़ों की सूजन को श्वास अवरोधक उपचारों से बचाया जा सकता है। त्वचा के संक्रमण में जैनिशन वायलेट का एक प्रतिशत घोल लगाए या जात्यादि तेल लगाएं। नाभिपाक में भी दशांग लेप या जात्यादि कैरतेल या सल्फा का पाउडर लगाएं। स्प्रिट से भी लाभ होता है। आमाशय की सूजन में महागंधक योग, मुखपाक में जेनिशन वायलेट, ग्लिसरीन या इरिमेदादि तेल यां शुद्ध टंकण (सुहागा) पाऊडर डाले। रक्तस्रावी रोगों में विटामिन के, तृणकांतमणि पिष्टी, चंद्रकला रस, कामदुधा रस, रक्तपित्त कुलकंडन रस, बोलबद्धरस और कामला पीलिया में लाक्षणिक चिकित्सा एवं काशीस भस्म, निशालौह, पुननर्वामंडूर का प्रयोग लाभकर होता है।
शिशु अपने रोग को कह नहीं पाता अतः निम्न बातें रोग का कारण जानने में सहायक हो सकती हैं।
बालक के रोने की दशा से कम या अधिक दर्द का अनुमान करें। बालक जिस भाग को लगातार छूना चाहता है और यदि किसी दूसरे द्वारा वह भाग छुआ जाता है तो रोना चिल्लाना बढ़ जाता है। इसका अर्थ है कि वह भाग रोग से प्रभावित है। सिर दर्द में बालक सिर को बार-बार घुमाता है। आंखें बंद करता हैं। रात में रोता है। भूख व नींद नहीं आती है। यदि बालक दांत किटकिटाता है, मुट्ठी बंद करके कठिनाई से सांस लेता है, तब यह सोचना चाहिए कि उसका फेफड़ा विकारयुक्त है। बुखार से पहले शिशु जम्हाई लेता है। दूध लेने से इंकार करता है, अधिक लार गिराता रहता है, चेहरा गर्म तथा पैर ठंडे होते रहते हैं, पेट में गुड़गुड़ाहट, उल्टी, पेट में वायु, दांत से मां का स्तन काटना, पैर सिकोड़ना ये सब पेट में दर्द के सूचक हैं।
दूषित दूध के पीने से बच्चा दुर्गंधित, पतला, झागदार, फटा हुआ, हरे, नीले, पीले अनेक रंग के दर्द के साथ मल का बार-बार त्याग करता है। मूत्र गंदला एवं गाढ़ा होता है। बुखार, उल्टी, पेट में गुडगुडाहट, मुख का पकना आदि। यह भयानक रोग है। उचित चिकित्सा न होने पर जल की कमी होने से बाल शोष या जिगर में सूजन होकर मृत्यु हो जाती है।
पहले माता के दूध का शोधन करें। कुछ दिन माता को दूध एवं फलाहार पर रखें। अगस्ति सूतराज रस, कर्पूर रस, को वराट भस्म में मिलाकर देने से लाभ होता है। गंगाधर चूर्ण भी उपयुक्त हैं। यदि माता का दूध अनुकूल न हो तो बच्चे को बकरी का दूध पिलाएं। बकरी के दूध में दो चम्मच चूने का पानी मिलाकर तीन-तीन घंटे पर दें।
कुमार कल्याण रस बालकों की उत्तम औषधि है। मिश्री व दूध के साथ देने से यह बच्चे के दस्त, बुखार, उल्टी, खांसी, पीलिया, दुर्बलता आदि सभी में उत्तम लाभ करती है। इससे बच्चे की भूख बढती है।
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