पौष्टिक आहार क्या है । जच्चा-बच्चा के लिए पौष्टिक आहार क्यों जरुरी है?

पौष्टिक भोजन का मतलब है, सुपाच्य तथा माता और शिशु के शरीर को पर्याप्त मात्रा में शक्ति प्रदान करने वाला भोजन। वह भोजन जिसको खाने से मां प्रसव तथा उसके बाद की तकलीफों को सहन कर सके तथा शिशु पेट से बाहर आने पर नए वातावरण से तालमेल बिठा सकने की शक्ति प्राप्त कर सके, वह पौष्टिक भोजन कहलाता है। प्रसव से पहले गर्भस्थ शिशु को कुछ पचाना नहीं पड़ता, वह सीधे पचे-पचाए भोजन को माता से ग्रहण करता रहता है।

इस अवस्था में उसे मल-मूत्र भी नहीं बनता, न त्यागना होता है। दुनिया में आने के बाद उसे बहुत कुछ सहना पड़ता है, जैसे बाहर के तापमान का तथा रोगों का सामना करना आदि। इसलिए उसको सक्षम बनाना जरूरी है। अतः मां तथा बच्चा, दोनों को उनके शरीर की आवश्यकता के अनुरूप भोजन मिलना ही चाहिए। ऐसे ही भोजन को पौष्टिक भोजन कहते हैं।

शिशु को विटामिन ए तथा डी की आवश्यकता: शिशु जन्म से ही मां के दूध पर पल रहा है या ऊपर के दूध पर निर्भर है, उसे हर हालत में विटामिन ‘ए’ तथा ‘डी’ मिलते ही रहना चाहिए। ये विटामिन जन्म से दस दिनों बाद शुरू हो जाने चाहिए। इसे चाहे किसी रूप में दें, मगर अवश्य दें। उसे इन दोनों की नितांत आवश्यकता होती है।

काडलिवर या हैलिबटलिवर का तेल अथवा शार्क मछली से बनाया गया तेल इन विटामिनों के अच्छे स्रोत हैं।

विटामिनों की मात्रा : बच्चे के साथ-साथ माता को भी विटामिन ए तथा डी दोनों लेने जरूरी हैं। दूध, अण्डा, मक्खन विटामिनों के अच्छे स्रोत हैं। हां, केवल इन तीन चीजों के सेवन से इन दो विटामिनों तथा अन्य तत्त्वों की कमी पूरा नहीं हो पाती, इसलिए प्रोटोकेसीनौल जैसी दवा भी अवश्य लेनी चाहिए।

विटामिन बी एंड सी : यदि डॉक्टर यह महसूस करे कि मां को विटामिन बी और सी की भी आवश्यकता है, तो यह गोलियों के रूप में भी दी जा सकती हैं। जैसी और जितनी मात्रा डॉक्टर कहे, मां को अवश्य लेनी चाहिए। इस विषय में कोई लापरवाही न करें।

स्वास्थ्य तथा वृद्धि के लिए : बच्चे के स्वास्थ्य को ठीक रखने तथा उचित विकास व वृद्धि के लिए उसे विटामिन उसके पूरे बाल्यकाल में अवश्य देते रहें। जैसे-जैसे बच्चे की आयु बढ़ती जाए, मात्रा भी बढ़ाएं, मगर केवल डॉक्टर की सलाह पर, अपने आप नहीं। विटामिनों की मात्रा उतनी ही देनी चाहिए, जितनी उस बच्चे के लिए, उस आयु में जरूरी हो।

दूध की गुणवत्ता के लिए : बच्चे को दूध पिलाकर मां उसकी आवश्यकताओं को पूरा करती है। अतः दूध की मात्रा इतनी हो कि बच्चे का पेट भरा रहे, साथ ही दूध की गुणवत्ता भी कायम रहे। इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए माता को चाहिए कि वह उचित मात्रा में अच्छा भोजन तथा अन्य तत्त्व खाए, जिससे दूध की उत्पत्ति और गुणों में कमी न आए। दूध के गुण मां के भोजन पर निर्भर रहते हैं।

प्रोटीन युक्त भोजन : मां के लिए प्रोटीन युक्त भोजन करना अत्यंत आवश्यक है। वह भोजन में प्रतिदिन पर्याप्त मात्रा में दूध अवश्य पिये, तभी शरीर में दूध बनेगा तथा बच्चे के लिए उतरेगा भी दूध प्रोटीनों का एक अच्छा स्रोत है।

प्रोटोकेसीनौल : बाजार में भी कमजोर माताओं के लिए दवाओं के रूप में शुद्ध प्रोटीन युक्त पदार्थ उपलब्ध रहते हैं। ‘प्रोटोकेसीनौल' तथा ऐसे ही कुछ अन्य नामों से यह शीशी उपलब्ध है। यदि मां के लिए अन्य सभी पदार्थ प्राप्त न किए जा सकें, तो इस प्रकार का टॉनिक लेकर शरीर की जरूरत पूरा करना सरल है।

विटामिनों से भी अधिक जरूरी : विटामिन ए, डी, बी, सी, प्रोटीन कैल्शियम आदि तो जच्चा-बच्चा दोनों के लिए आवश्यक है ही, मगर इनसे भी अधिक जरूरी है माता को आराम, अच्छी नींद का आना, वह प्रसन्न रहे। हर समय किसी चिंता में न घिरी रहे। थोड़ी मात्रा में जरूरी व्यायाम भी करे। उत्तम भोजन होगा तथा ये सब कारक होंगे, तो शीघ्र ही वह स्वयं अच्छी सेहत प्राप्त कर सकेगी। बच्चा भी तीव्रता के साथ विकसित होगा।

दूध की मात्रा : साढ़े सात-आठ पौंड के बच्चे को या फिर सवा तीन से साढ़े तीन किलो भार वाले बच्चे को 600 ग्राम दूध, आरंभ में प्रतिदिन मिलना ही चाहिए। बच्चा बढ़ता जाएगा, तो दूध की मात्रा भी बढ़ती जाएगी। एक समय में 100 ग्राम तक दूध बच्चा लेने लगेगा, तो उसके भार में भी आशातीत वृद्धि हो जाएगी।

एक अन्य अनुमान के अनुसार, एक दिन के बच्चे को (15) ग्राम दूध पहले चौबीस घंटों में शुरू करके एक सप्ताह का होते-होते 275 ग्राम प्रतिदिन की मात्रा पर आ जाना चाहिए। जब बच्चा तीन मास का हो जाए, तब प्रतिदिन की मात्रा एक किलो के आसपास पहुंच जानी चाहिए। जब शिशु 6 मास का हो जाए, तो उसे प्रतिदिन 1200 ग्राम दूध मिले। इसके बाद दूध के साथ कुछ अन्य पदार्थ भी सम्मिलित होने शुरू हो जाते हैं। जैसे, सैरेलैक्स आदि।

कैलोरी में वृद्धि : शिशु का भार बढ़ता है, तो उसके लिए कैलोरी भी बढ़नी चाहिए। यदि शरीर के भार में 450 ग्राम की वृद्धि हो, तो 50 कैलोरी शक्ति की जरूरत होती है। इस प्रकार यदि शिशु का भार साढ़े तीन से चार किलो के बीच हो जाए, तो उसे 400 कैलोरी के आसपास शक्ति की आवश्यकता होती है। ऐसे में उसे एक सप्ताह के अंदर 600 ग्राम दूध प्रतिदिन दिया जाना चाहिए।

भिन्न समयों में भिन्न मात्रा : एक ही बच्चा एक दिन में भिन्न समयों पर भिन्न मात्रा में दूध पीता है। प्रातः उठते ही वह अधिक दूध पीता है। दिन की प्रातः मात्रा से कम होती है। रात को सोते समय वह बच्चा जितना दूध पीता है, वह दिन से भी कम होता है।

माता का दूध बढ़े : यदि बच्चे को भरपेट दूध नहीं मिल पाता, प्रातः पूरा मिल जाता है और इस प्रकार रात तक प्रातः की मात्रा का केवल एक तिहाई रह जाता है, तो बच्चा निर्बल हो जाएगा और अविकसित रह जाएगा, उस पर रोग के जीवाणु अथवा विषाणु भी अधिक आक्रमण करेंगे। इसके लिए जरूरी है कि मां का दूध बनना बढ़े, साथ ही साथ बच्चे की दूध की कमी को ऊपर के दूध से पूरा करें।

ऊपर का दूध : बच्चे को डेढ़-दो महीनों की आयु के बाद या फिर कभी भी, मां का दूध न देकर ऊपर के दूध पर लाना पड़ता है। इसके लिए कुछ विवशताएं होती हैं :

1। मां के वक्ष में, स्तनों में, दूध बनता ही इतना कम है कि बच्चा हर समय भूखा रहता है और अकसर रोता रहता है।

2। मां को कोई ऐसा रोग है, जिस कारण बच्चे को वह दूध नहीं पिला सकती, यह बीमारी स्तनों पर फोड़ा, टायफायड या कुछ भी हो सकता है, जब डॉक्टर ही ऐसा कह देते हैं कि मां अपना दूध बच्चे को नहीं पिलाएगी।

3। बच्चे को भी कोई ऐसा रोग हो सकता है, जिससे बच्चे के मुँह से मां के स्तनों के द्वारा मां को रोग लग सकता है।

ऐसी यदि डॉक्टर को आशंका हो, तो वह स्तनपान की इजाजत नहीं देगा। इन हालातों में ऊपर का दूध पिलाना ही पड़ेगा और पिलाना भी चाहिए। बच्चे को बिलकुल भी भूखा न रखें वरना बच्चा पहले निर्बल, फिर रोगी हो जाएगा।

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