साधारणतया जनमानस में एक धारण बनी हुई है कि मानसिक रोग एक ही प्रकार का होता है। ऐसा नहीं है। नवीनतम अंतरराष्ट्री वर्गीकरण के अनुसार मानसिक रोगी को लक्षणों एवं कारणों के आधार पर एक सौ बड़े समूहों एवं प्रत्येक को दस-दस उपवर्गों में विभक्त किया जा सकता है।
विखण्डित मानसिकता इन्हीं बड़े समूहों का एक गंभीर एवं जटिल मनोविकार है। इसके होने पर रोगी के मस्तिष्क की कार्य-प्रणली में विकार आ जाता है।
हमारे देश की जनसंख्या का 1 प्रतिशत भाग विखण्डित मानसिकता (सिजोफ्रेनिया) नामक रोग से ग्रसित है।
यह रोग प्रायः 15 से 45 वर्ष की आयु में प्रारंभ में होता है, पुरुष-महिलाएं, गरीब-अमीर में समान रूप से पाया जाता है।
यह रोग प्रायः धीरे-धीरे प्रारम्भ होता है। अतः लक्षण भी धीरे-धीरे प्रकट होते हैं। कुछ सामान्य लक्षण निम्न प्रकार से हैं जिनसे इस बीमारी के होने की पहचान की जा सकती है।
ऐसे रोगी भावनात्मक रूप से निष्क्रिय होने के कारण उपर्युक्त भावों को व्यक्त करने में भी असमर्थ बन जाते हैं और महसूस करते हैं कि बाहरी दुनिया से उनका कोई रिश्ता ही नहीं है। जरूरी नहीं कि उपर्युक्त वर्णित समस्त लक्षण एक रोगी में एक साथ दिखाई दें।
कुछ लक्षणों की पहचान होने पर तुरन्त मनोचिकित्सक से परामर्श करना चाहिए। बीमारी की पहचान, निदान और उपचार जितना जल्दी संभव हो, शुरू कर देना चहिए। इससे रोगी के ठीक होने की संभावनाएं अधिक हो जाती हैं।
उपर्युक्त प्रकार के मनोविकार के होने के सही-सही कारणों का पूर्ण रूप से ज्ञान नहीं हो पाया है। विश्व के मनोचिकित्सक इस पर अनुसंधान कर रहे हैं। अभी तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह रोग अनेक कारणों से होता है।
अनुसंधान से पता चलता है कि इस प्रकार के रोगी के मस्तिष्क की जैव रसायन प्रणाली में एक स्पष्ट असंतुलन दिखाई देता है। हालांकि किसी तरह के रासायनिक दोष की पहचान अभी तक नहीं हो पाई है। आनुवंशिक आधार के बारें में सभी वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि बीमारी का कुछ खतरा आनुवंशिकता के माध्यम से चला आता है।
यदि किसी व्यक्ति के वंश-वृक्ष में कोई विखण्डित मानसिकता से पीड़ित रहा हो तो उसके इस रोग से ग्रस्त होने की संभावना सामान्य की तुलना में अधिक होती है।
तेज बुखार, क्षय रोग, मलेरिया, मिर्गी, नशीले पदार्थों का सेवन भी कभी-कभी इस रोग के उत्पन्न होने के कारण बन जाते हैं।
प्रायः देखा गया है कि आनुवंशिक रूप से असुरक्षित व्यक्तियों में यह बीमारी किसी असहनीय मानसिक आघात की वजह से शुरू होती है, जैसे निकट संबंधी का अत्यधिक बीमार होना, आकस्मिक मृत्यु हो जाना, आर्थिक हानि, असफलता, निराशा या तिरस्कार आदि।
बच्चे के कोमल मस्तिष्क को ठेस पहुंचाती हैं और बच्चे के मन में विभिन्न प्रकार की कुंठाएं, हीन भावना, नैराष्य इत्यादि पैदा हो जाती हैं व बड़े होने पर अत्यधिक संवेदनशील, तनावपूर्ण वातावरण व प्रतिकूल परिस्थितियों में इन रोगों के हो जाने में सहायक सिद्ध होते हैं।
विखण्डित मानसिकता का संबंध जहां मस्तिष्क में जैव-रासायनिक तत्वों के असंतुलन से है, वहीं पारिवारिक व सामाजिक तनाव भी इस रोग को बढ़ाने व पनपाने में अहम् भूमिका निभाते हैं। विशेषकर उन व्यक्तियों में जिनके वंश में इस रोग से ग्रस्त कोई पहले रहा हो।
पारिवारिक व सामाजिक विकृतियां जैसे बार-बार गृह कलह, झगड़े-मारपीट, अशांति, संबंध-विच्छेद, मादक पदार्थों का अत्यधिक सेवन, वैवाहिक जीवन में अत्यधिक कटुता, पश्चिमी संस्कृति की अंधाधुन नकल, बढ़ती जनसंख्या, बेरोजगारों में कड़ी प्रतिस्पर्धा, आकांक्षा, आर्थिक बोझ, तीव्र गति से बदलते सामाजिक परिवेश और नैतिक मूल्यों का ह्रास, दूषित वातावरण, हिंसा इत्यादि मानसिक तनाव को बढ़ाती है। व अत्यधिक संवेदनशील व्यक्ति को शीघ्र बीमार होने का मार्ग प्रशस्त करती है।
आधुनिक औषधियों से लगभग 70 प्रतिशत से 90 प्रतिशत रोगी जिनको यह रोग पहली बार होता है, निश्चित रूप से स्वस्थ हो जाते हैं। विभिन्न प्रकार की औषधियां बाजार में उपलब्ध हैं जिनका चयन मनोचिकित्सक अपने विवेक से करता है।
रोगी जब तक पूर्ण रूप से स्वस्थ न हो, दवाएं बंद नहीं करना चाहिए। ऐसा करने पर रोग के दुबारा होने का अंदेशा बना रहता है, इसलिए कई रोगियों को तो कई-कई वर्षों तक दवाएं लेनी पड़ती हैं।
कभी-कभी ‘केटाटॉनिक'(Catatonic) विखण्डित मानसिकता में शीघ्र लाभ पहुंचाने के लिए इलेक्ट्रोकनवसिलसव(Electroconvulsive)थैरेपी या संघात चिकित्सा की सलाह दी जाती है लेकिन दवाओं का सेवन अनिवार्य है।
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मनोचिकित्सक रोगी के रिश्तेदारों एवं पारिवारिक सदस्यों के साथ मिलकर अनेक पहलुओं एवं समस्याओं पर विस्तार से वार्ता करते हैं। परिजनों को चाहिए कि ऐसे समय रोगी के लिए अनुकूल व धैर्य का वातावरण दें।
उसे आलसी, अक्खड़, असामाजिक नहीं बल्कि बीमार समझें। ध्यान रहे कि मनोचिकित्सक द्वारा लिखी गई दवाओं को नियमित रूप से रोगी को दें, उसके क्रिया-कलापों में रुचि दिखाएं, कुछ जिम्मेदारी का कार्य सौंपें जिसे वह आसानी से कर सके।
हमेशा ऐसे रोगी को प्रोत्साहित करें व विश्वास दिलाएं कि वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो ही जाएगा व भविष्य में आगे बढ़ेगा।
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