नवजात शिशु में जन्म के बाद परिवर्तन

यहां यह बताना जरूरी है कि मां का दूध पूर्णतः बच्चे के अनुकूल होता है। वह अविकसित पाचन शक्ति के होते हुए भी इसे पचा सकता है। बच्चे के जन्म के समय माता के शरीर से निकला ‘कोलोस्ट्रम' भले ही गाढ़ा हो, शिशु इसे इसके गुणों के कारण सुगमता से पचा लेता है। इसमें शिशु को कोई कठिनाई नहीं होती। तीसरे दिन से कोलोस्ट्रम की जगह दूध लेना शुरू कर देता है। अब यह इतना पतला होता है कि बच्चे को इसे हजम करने में कोई परेशानी नहीं होती, या यों कहें कि इसे पचाना उसके लिए सुगम होता है।

भले ही बच्चे में पाचन का गुण अभी विकसित नहीं हुआ होता, तो भी शिशु इसे सुगमता से पचा लेता है। यह मां के दूध की खूबी है। यह कुदरत का करिश्मा है, जिसने बच्चे के लिए दूध को पूर्णतः अनुकूल तैयार किया है।

1. पाचन शक्ति में वृद्धि:

धीरे-धीरे शिशु की पाचन शक्ति बढ़ने लगती है। उसके पाचक अंग मजबूत होने लगते हैं। इसी अनुपात से दूध भी गाढ़ा होने लगता है तथा बच्चा दूध की मात्रा लेना बढ़ा देता है। दोनों बातें बच्चे के अनुकूल बैठती हैं तथा वह मां के अधिक मात्रा वाले तथा अधिक गाढ़े दूध को पचाने में सक्षम हो जाता है। भले ही मां का दूध गाढ़ा न हो, पहले की तरह पतला रहे, तो भी यह इस प्रकार स्वाभाविक अवस्था में रहता है कि बच्चे के लिए कोई परेशानी पैदा नहीं करता।

2. पोषक अवयवों की मात्रा:

समय के साथ दूध को गाढ़ा होना ही है। इसमें पोषक अवयव भी बढ़ते ही हैं, उसी मात्रा में शिशु का शरीर भी सक्षम हो जाता है। शिशु के अंग भी बलवान होते जाते हैं। उसकी पाचन शक्ति बढ़ती जाती है। दूध में आ गए अतिरिक्त पोषक अवयव उसके शरीर की आवश्यकता के अनुकूल ही रहते हैं।

शिशु की शारीरिक आवश्यकताएं उसकी आयु के साथ बढ़ती रहती हैं। मां का दूध भी उसी हिसाब से अधिक ताकत वाला होता जाता है। हर जगह, हर समय, हर क्रिया में प्रकृति मौजूद रहकर शिशु को संभालती है तथा उसका पूरा-पूरा साथ देती है। इधर बच्चे की उम्र बढ़ाती है, तो उधर दूध को अधिक पोषक तत्त्व प्रदान कर देती है।

3. अनुपात में अंतर:

मान लो किसी भी कारण से एक महीने की आयु वाले बच्चे को उस स्त्री का दूध पिलाना पड़े, जिसका प्रसव सात महीने पहले हुआ था। ऐसे में यह एक महीने का शिशु उस सात महीने पहले प्रसूता हुई स्त्री का दूध किसी भी प्रकार से पचा नहीं सकेगा, या तो फेंक देगा या बीमार पड़ जाएगा। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि जो दूध एक मास के बच्चे को चाहिए, यह वैसा नहीं है। इसमें बहुत अधिक पोषक अवयव हैं-कई गुणा अधिक-भले ही सात गुणा अधिक तो नहीं,

लेकिन इतना अधिक कि एक मास का बच्चा बीमार पड़ सकता है, उसका उदर खराब हो जाएगा या अजीर्ण हो जाएगा। क्योंकि दोनों के दूध तथा शिशु की आयु में अनुपात का बहुत अंतर है। यहां यह निष्कर्ष सामने आता है कि प्रकृति बच्चे की आयु के अनुपात से ही मां के दूध के पोषक अवयवों में वृद्धि करती है, ताकि बच्चा इसे पचा सके। बीमार न पड़ जाए।

4. रोगों का भय:

सरकार के पास इस बात के आंकड़े मौजूद हैं, जिनके मुताबिक गाय के दूध से अधिक संक्रमण होता है। उन बच्चों की मृत्यु अधिक होती है जो गाय का या अन्य जानवरों का दूध पीते हैं। ऊपर का दूध पीने वाले बच्चों में अधिक विकार होते हैं, जबकि मां का दूध पीने वाले बच्चों को रोगों का संक्रमण बहुत कम होता है। उनकी मृत्यु दर बहुत कम है। ऐसे बच्चों में विकार नहीं होते, जो मां का दूध पीते हैं।

5. मानसिक प्रभाव:

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्तनपान कराने से मां तथा शिशु पर अच्छा मानसिक प्रभाव पड़ता है। उनका रिश्ता और भी घनिष्ठ हो जाता है। बच्चे का शरीर मां से अलग होते हुए भी उसका अभिन्न अंग बना रहता है। जब मां दूध पिलाती है, तो उसके अंदर का ममत्व ठाठे मारने लगता है। वात्सल्य खूब जाग उठता है। प्रेम निरंतर उमड़ता रहता है। मां द्वारा अपने लाड़ले को गोद में लेकर दूध पिलाना कोई सामान्य कार्य नहीं, बल्कि यह एक मानसिक संतुष्टि का कार्य है। यह कार्य दोनों के संबंधों को और भी करीबी तथा प्रगाढ़ बना देता है।

6. गर्भाशय पर प्रभाव:

दूध पिलाते समय स्तन के द्वारा कुछ उत्तेजनाएं शरीर में पहुंचती चली जाती हैं। इसी से उसका गर्भाशय संकुचित होता है। उसका गर्भाशय जो प्रसव के कारण फैला था, बड़ा हुआ था, तीव्रता से संकुचित होकर अपनी सामान्य स्थिति में पहुंच जाता है। जो युवतियां अपना दूध नहीं पिलातीं, उनका, गर्भाशय देर से अपनी सामान्य स्थिति में आता है। उन्हें यह बहुत बड़ा नुकसान होता है।

7. आसपास का ज्ञान:

बच्चा इस समय इतना छोटा होता है कि उसका मानसिक विकास नहीं हो पाता, मगर फिर भी मां के स्तनों से दूध पीकर उसे आसपास का, प्यार का, गुस्से का, ठंडा-गर्म का, कड़वे-मीठे का ज्ञान स्वतः हो जाता है। यह उसे कोई सिखाता नहीं, फिर भी वह सीख जाता है। ऐसा अनुभव करने की शक्ति उसे स्वतः आ जाती है। इसे यदि मां के प्यार का, मां के दूध का, मां के वात्सल्य का प्रभाव कहें, तो यह गलत न होगा।

8. सुरक्षा का अनुभव:

मां के सीने से लगकर बच्चा अपने आपको सुरक्षित अनुभव करता है। वह एक विशेष सुख की अनुभूति करता है। बच्चे को यों चिपकना और सुरक्षित महसूस करना उसे शारीरिक और मानसिक उन्नति दिलाता है। बच्चे के लिए यह अद्भुत उपलब्धि होती है। यह मां का उसे अनुपम उपहार है।

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