पसीना आना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। यह और बात है कि का लोगों को पसीना कम आता है और कुछ को अधिक। गमी से अधिक परिश्रम करते समय सभी को सामान्य से कुछ अधिक पसीना आता है। जिससे ना तो घबराना ही चाहिए और न ही शंकित होना चाहिए।
मनुष्य एक समतापी (कोल्ड ब्लडेड) प्राणी है, अर्थात् वातावरण के तापक्रम में आने वाले सामान्य बदलाव के प्रति मानव शरीर लगभग अप्रभावित रहता है। क्योंकि वातावरण के तापक्रम में उतार-चढ़ाव होने, काम करने तथा हमारे द्वारा ग्रहण किए गए आहार के ऑक्सीकरण से, जब हमारे शरीर की गर्मी में वृद्धि होती है, तो हमारे शरीर में कुछ ऐसी प्रतिक्रियाएं (जिन्हें ताप नियंत्रक प्रणालियां कहा जाता है) होती हैं। जिनके कारण हमारे शरीर का तापक्रम बढ़ने या घटने नहीं पाता, बल्कि सामान्य अर्थात् 98.5° फारेनहाइट या 37° सेंटीग्रेड ही बना रहता है।
पसीने का अधिकांश भाग पानी होता है, जिसमें विभिन्न प्रकार के लवण जैसे, सोडियम व पोटिशयम क्लोराइड तथा दूसरे रासायनिक पदार्थ घुले रहते हैं, जिनके कारण इसका स्वाद खारी होता है।
पसीना ‘स्वेद ग्रंथियों’ या ‘स्वीट ग्लेंड्स’ में बनता है, जो हमारे शरीर की त्वचा के नीचे विशेष रूप से हाथों की हथेलियों, पैरों के तलवों तथा सिर की त्वचा के नीचे स्थित होती है। सामान्यतया मानव में इनकी संख्या 20 से 30 लाख तक होती है।
स्त्रियों में स्वेद ग्रंथियों की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक होती है, फिर भी ‘टेस्टो-स्टीरोन हार्मोन के कारण स्त्रियों की पुरुषों से कम पसीना आता है।
पसीना कब इन स्वेद ग्रंथियों में बने, इसका आदेश हमारे मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस भाग द्वारा दिया जाता है। एक स्वस्थ मनुष्य के मस्तिष्क का यह भाग एक तापस्थायी या थर्मोस्टेट का कार्य करता है।
किसी भी कारण से हमारे शरीर के गर्म होने से उसमें उपस्थित रक्त की उष्मा पाकर गर्म होता है और जब यह गर्म रक्त मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस भाग में पहुंचता है, तो वह उसे उत्तेजित कर देता है। फलतः परानुकंपी तंत्रिकाओं के माध्यम से शरीर के ताप को सामान्य व नियंत्रित रखने वाली क्रियाएं जैसे पसीने का स्वेद ग्रंथियों में बनना प्रारम्भ हो जाता है। जो शरीर के विभिन्न भागों से उत्सर्जित होने लगता है।
जब शरीर के बाहर का वातावरण काफी गर्म एवं सूखा (शुष्क) हो, तो वह पसीना वाष्प बनने लगता है। वाष्प बनने की प्रक्रिया में पसीना त्वचा से ऊष्मा लेता है।
जिस प्रकार एक मिट्टह के घड़े में रखा पानी अपनी ऊष्मा खोकर ठंडा होने लगता है, ठीक ऐसी ही प्रक्रिया हमारे शरीर में तब तक होती है, जब तक शरीर का ताप सामान्य नै हो जाए। शरीर के ताप को सामान्य बनाए रखने की इस प्रक्रिया को ‘समस्थैतिक क्रिया’ कहते हैं।
गर्मियों के दिनों में मानव शरीर, सामान्य तापक्रम को बनाए रखने के लिए लगभग आधा लीटर पसीना प्रति घंटे की दर उत्सर्जित करता है, जिससे शरीर में बढ़ी हुई गर्मी की लगभग 125 कैलोरी ऊष्मा (ऊर्जा) प्रति घंटे की दर से कम हो जाती है। इस प्रकार हम ठंड का अनुभव करते हैं।
जब हम तेज धूप एवं गर्मी में काम करते हैं, तो पसीना भी ज्यादा आता है। ऐसे में सामान्य से कहीं अधिक लगभग 4 लीटर तक पसीना एक घंटे में बनता है जिसका कुछ भाग तो वाष्प बन जाता है परन्तु अधिकांश पसीना पानी की तरह हमारे शरीर से बहने लगता है। वैसे तो इतना पसीना बहना कोई खतरे की बात नहीं, परन्तु पसीने के साथ हमारे शरीर के लिए आवश्यक लवण व पानी भी उत्सर्जित हो जाते हैं।
आमतौर पर हम देखते हैं कि उमस भरे व अधिक आर्द्रता वाले वातावरण में जब, हवा में पहले से ही नमी या वाष्प अत्यधिक होती है, तब भी हमें पसीना आता है। चूंकि इस वातावरण में पसीना वाष्पीकृत या सूख नहीं पाता तो हमारे शरीर की गर्मी को भी कम नहीं कर पाता है। अर्थात् हमारी ताप नियंत्रक प्रणाली से इस पसीने का कोई भी सम्बन्ध नहीं होता। प्रश्न यह उठता है कि ऐसे में फिर पसीना क्यों आता है। परन्तु इस प्रश्न का कोई संतोषप्रद उत्तर अभी भी वैज्ञानिकों के पास नहीं। है। बस यही कहा जा सकता है कि पसीना आना भी ऐसी ही स्वाभाविक प्रक्रिया है, जैसे मल-मूत्र का त्याग करना।
पसीने के साथ अतिरिक्त तेल भी त्वचा से हट जाता है जिससे वातावरण में शामिल धूल के कण व बहुत से कीटाणु त्वचा से चिपक नहीं पाते। यदि पसीना ना आए तो मिट्टी व कीटाणु तेल में मिलकर त्वचा के नीचे व ऊपर जमा होने लगते हैं। जिससे कील-मुहांसों का जन्म होता है। तथा हमारी त्वचा अन्य बीमारियों की लपेट में भी आ जाती है।
पसीना बहने से विषैले पदार्थों का तो उत्सर्जन होता ही है, साथ ही हमारे शरीर के लिए आवश्यक सोडियम लवण भी उत्सर्जित हो जाते हैं। यदि पसीना ज्यादा आए तो रक्त में सोडियम का स्तर घटने व पोटेशियम का स्तर बढ़ने लगता है। इसे ‘हाइपर पोटेशियम' कहते हैं।
अधिक पसीना बहने से शरीर में पानी व लवणों की कमी के कारण सिर में दर्द, नींद, चिड़चिड़ापन व कभी-कभी उल्टियां भी आने लगती हैं। व्यक्ति कोई निर्णय नहीं ले पाता। शरीर ठंडा पड़ने लगता है और सांस तथा नाड़ी तेज चलने लगती है।
ऐसे में रोगी को टमाटर के रस में नमक व पानी मिलाकर थोड़ी-थोड़ी मात्रा में देते रहना चाहिए। नींबू-पानी भी शरीर में आयी लवणों की कमी को दूर करता है। गर्म वातावरण में देर तक काम करते समय खाली पेट ना रहें तथा उपर्युक्त चीजों का उपयोग करते रहें। मगर ध्यान रहे, अष्टि कि मात्रा में नमक खाने या पीने से पेट के अल्सर व उच्च रक्तचाप का खतरा हो सकता है।
स्वाभाविक रूप से पसीना आना हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। परन्तु अधिकतर लोग पसीना आने से घबराते हैं। यह ठीक है कि विषैले पदार्थों व लवणों से युक्त किसी-किसी का पसीना बहुत दुर्गन्धमय होता है, परन्तु ना तो इससे बचने के लिए किसी पाउडर इत्यादि का और ना ही दुर्गन्धनाशकों का उपयोग करना चाहिए।
पाउडर लगाने से त्वचा के रोग-छिद्र बन्द हो जाते हैं, जिससे उनके द्वारा पसीना व विषैले पदार्थ त्वचा से निकल नहीं पाते, परन्तु कील-मुहांसे निकलने लगते हैं। त्वचा में सूजन आ जाती है। यही नहीं, इन पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के लिए गुर्दो को अतिरिक्त कार्य करना पड़ता है।
पूछें गए सवाल